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जीवन जीने के फंडे

एन. रघुरामन

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7904
आईएसबीएन :978-81-7315-881

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सच्ची घटनाओं पर आधारित प्रेरक कथाओं का संग्रह...

Jivan Jine Ke Funde - A Hindi Book - by N Raghuraman

मालविका अय्यर ने तेरह वर्ष की उम्र में आयुध फैक्टरी में हुए भीषण विस्फोट में अपने दोनों हाथ खो दिए। दोनों पैरों में भी गंभीर चोटें आईं। इसके बाद 18 महीने अस्पताल में रही और चरणबद्ध ऑपरेशनों का दर्द झेला। इतने बड़े हादसे के बाद तो कोई भी हिल जाए, लेकिन मालविका ने हिम्मत नहीं हारी। मात्र चार महीने की पढ़ाई से मालविका दसवीं में 97 प्रतिशत अंक लाने में सफल रही। गणित और विज्ञान में सौ में से सौ और हिंदी में 97 अंक लाकर पूरे तमिलनाडु राज्य में टॉप किया। यही नहीं, बारहवीं कक्षा में 95 प्रतिशत अंक लाने में सफल रही। वर्ष 2006 में मालविका ने देश के प्रतिष्ठित कॉलेजों में अग्रणी दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में अर्थशास्त्र विषय से स्नातक किया। अपने बहुमुखी प्रदर्शन के बलबूते मालविका वाइल्ड-लाइफ सोसाइटी से जुड़े एक एनजीओ की कॉर्डिनेटर बन गई। इसके साथ ही उसे कॉमनवेल्थ सोसाइटी का एक्जीक्यूटिव सदस्य भी मनोनीत कर दिया गया। खाली समय में वह दो दृष्टिहीन बच्चों को पढ़ाने का भी काम करती है। आज मालविका दूसरों को सिखाती है कि चुनौतियों से सामना कैसे किया जाता है।

यह सच्ची कहानी चर्चित स्तंभकार एन. रघुरामन के जीवन के विविध रंगों को समेटे स्तंभों में से एक है। उन्होंने जो देखा-सुना-अनुभव किया और जिसने जीवन के प्रति एक सकारात्मक रुख अपनाने का मार्ग बताया, ऐसी सच्ची घटनाओं पर आधारित प्रेरक कथाओं का संग्रह है रघुरामन की प्रस्तुत पुस्तक ‘जीवन के फंडे।’ सुख-दुःख, आशा-निराशा, हर्ष-विषाद में समभाव बनाए रखने का संदेश देती, अत्यंत पठनीय प्रेरणाप्रद कृति।

गुरु माँ


महिलाओं के लिए प्रबंधन विषय पर लिखना वैसा ही है, जैसे सूरज को चिराग दिखाना। इसलिए अपने पहले कॉलम में मैं वही दोहरा रहा हूँ, जो मेरी मम्मी हर पल कहती रहीं। मेरा विश्वास रहा है कि माँ से बड़ा मैनेजमेंट गुरु कोई हो ही नहीं सकता। न मानें तो मेरे बचपन में झाँककर देखें, आपको अपना बचपन दिखाई देगा। मेरा दिन शुरू होता था माँ के इस कथन से—‘बेटा, देर मत करना। जल्दी उठोगे तो अपने दोस्तों से आगे रहोगे।’ और आज आप देख लीजिए, हर मैनेजमेंट गुरु यही कहता मिलेगा—‘समय का प्रबंधन करो।’ वे भी कहते हैं—‘थोड़ा जल्दी जागने से आप दूसरों से आगे रहेंगे।’

हालाँकि थोड़ी देर टालमटोल करता हुआ मैं 15 मिनट बाद उठ जाता था, तो भी माँ को कहते हुए पाता था—‘बाथरूम में जाने से पहले अपना बिस्तर ठीक करके जाना। तुम दोबारा कमरे में आओगे तो बहुत फ्रेश महसूस करोगे। कमरा बिखरा रहेगा तो उलझन होगी।’ मैं तब समझ नहीं पाता था कि बिस्तर को ठीक करके, चादर-तकिए व्यवस्थित कर देने का फ्रेश महसूस करने से क्या संबंध हो सकता है। लेकिन आज वॉरेन बफेट जैसे विश्व के सफलतम रईस व्यवसायी भी कहते रहते हैं कि साफ-सुथरी मेज रहे तो दफ्तर में दस घंटे भी ताजादम रहने में मदद मिलती है।

हालाँकि मैं बिस्तर ठीक करते समय भुनभुन करता रहता था, पर कर लेता था। फिर तेजी से बाथरूम में घुस जाता था, ताकि थोड़ी देर वहाँ ऊँघ लूँ। पर माँ की आवाजें मुझे याद दिलाती रहती थीं कि अपना काम जल्दी करना और जल्दी तैयार हो जाना। और मैंनेजमेंट गुरु भी कहते हैं कि दिन की योजना के मुताबिक चरण-दर-चरण चलते रहोगे तो कोई काम नहीं छूटेगा। जब तक मैं तैयार होकर आता, मेरा नाश्ता, स्कूल के लिए टिफिन, स्कूल बैग और पॉलिश किए हुए जूते तैयार मिलते। माँ लगातार कहती रहतीं—‘एक बार किताबें देख लो, कोई अनावश्यक किताब तो नहीं रखी है, पेंसिल शार्प की हुई है या नहीं, सारी किताबें और कॉपियाँ तो हैं न, आदि-आदि।’ यानी मीटिंग से पहले सबकुछ दो बार चेक कर लो, अपने पेपर्स, प्रेजेंटेशन, लैपटाप, पावन पॉइंट फाइल आदि चेक कर लो—‘मामला इंप्रेशन का है और सम्मान का भी।’ यही कहते हैं न प्रबंधन गुरु भी !

मैं स्कूल से लौटता तो माँ को दिनभर की सारी बातें बताता, जिनमें से काफी बातें माँ शाम को पिताजी को बतातीं। लेकिन कई बार वे उसी दिन कुछ भी नहीं कहती थीं। मैं हैरान होकर पूछता था, ‘माँ, आपने आज पापा से क्यों नहीं कहा ?’ तो वे कहतीं, ‘हर बात को कहना का एक वक्त होता है।’ यह बात आपने सेल्स या मैनेजमेंट की मीटिंग से ब्रीफिंग और डी-ब्रीफिंग के दौरान समझी होगी कि कब क्या कहना, कितना कहना और कब कुछ भी नहीं कहना है।

माँ मुझे घर में खिलौने से खेलने से रोकती थीं, कहतीं—‘बाहर जाकर खेलो। शारीरिक व्यायाम बहुत जरूरी है।’ आजकल दफ्तरों में भी जिम बनाए गए हैं, ताकि दस घंटे कुरसी पर बैठनेवाले एक्जीक्यूटिव फिटनेस पर ध्यान दे पाएँ। माँ शाम के भोजन से पहले कुछ भी अटरम-शटरम खाने से रोकतीं। ‘इससे भूख खुलकर नहीं लगेगी और खाना ठीक से नहीं खा पाओगे’—उनका तर्क होता था। इसे आज आहार विशेषज्ञ भी मानते हैं। रेडियो पर ‘हवामहल’ सुनते-सुनते हमारा भोजन हो जाता और नौ व सवा नौ के बीच हम सो जाते, सुबह फिर साढ़े पाँच बजे उठने के लिए।

फंडा यह है कि दुनिया की सारी माँओं के पास इस तरह की समझदारी है। उनकी बातों को सुनकर आपको भी लगेगा कि वे दुनिया के किसी भी मैनेजमेंट गुरु से जरा भी कम नहीं हैं।

आपकी सीख से किसी का नुकसान न हो


तीस साल की एक मुन्नी नाम की बच्ची थी। उसकी माँ एक दिन घर से बाहर थी। उस दिन उसके साथ-साथ उसके बड़े भाई की देखभाल की जिम्मेदारी भी उसके पिता पर आन पड़ी। मुन्नी को उसकी चाची ने टी-सैट अर्थात् कप-प्लेट और केतली आदि खिलौने दे रखे थे, जो उसके बड़े प्रिय खिलौने बन गए थे।

पिता अपने कमरे में थे और सायंकालीन समाचारों की दुनिया में खोए हुए थे। इसी बीच मुन्नी अपने पिता के उस छोटे कप में चाय लाई। दरअसल, यह सिर्फ पानी था और उसने कहा कि वह उनके लिए विशेष रूप से यह चाय बनाकर लाई है।

पिता ने बच्ची से चाय लेकर बड़ा उत्साह और खुशी जताई और मुन्नी की कोशिशों के लिए किसी तरह की उदासीनता नहीं दिखाई, जिससे कि वह हतोत्साहित महसूस न करे। उस कप से चाय की एक चुस्की भी ली। पिता ने कई कप चाय पी और मुन्नी पर प्रशंशा की झड़ी लगा दी। इसी बीच माँ ने घर का दरवाजा खटखटाया। पिता ने दरवाजा खोला और माँ को हॉल में ही ठहरकर मुन्नी की चाय लाने और पिलाने की गतिविधि देखने का इशारा किया। आखिर एक माँ-बाप के लिए मुन्नी इससे मनमोहक क्रिया-कलाप और क्या कर सकती थी ? माँ ने प्रतीक्षा की। मुन्नी पिता के लिए विशेष रूप से तैयार फिर एक कप चाय लेकर हॉल में आई। माँ ने पिता को यह तथाकथित छोटे कप की पूरी चाय (पानी) पीते देखा। मुन्नी के कमरे में से जाने के बाद माँ ने मुन्नी के पापा को कानफूसी के अंदाज में पूछा, ‘क्या आपके भेजे में यह बात एक बार भी नहीं आई कि मुन्नी यह चाय (पानी) टॉयलेट के नल के सिवा कहीं और से नहीं ला सकती, क्योंकि दूसरी जगहों पर पानी उसकी पहुँच से बाहर है।’

फंडा यह है कि किसी को दिल से सकारात्मक प्रोत्साहन और सराहना दें, न कि उत्साहित करने के नाम पर उन्हें गुड़गोबर करने की सीख या पाठ।

जीवन है तो सबकुछ है


जिस समय बंगलूर और अहमदाबाद जैसे शहर आतंकवादियों की धमकी और बम धमाकों का सामना कर रहे थे, उसी दौरान देश की एक प्रख्यात शैक्षणिक संस्था आईआईटी के एक छात्र ने खुद अपनी ही लीला समाप्त कर ली। आखिर लोग इस तरह आत्महत्याएँ क्यों करते हैं ?

बात स्पष्ट है कि आजकल जीवन के हर क्षेत्र में प्रतिस्पर्द्धा और कुछ हासिल करने के बढ़ते दबाव के कारण लोग ऐसी मनोदशा में पहुँच जाते हैं कि उनमें एक टूटन से पैदा हो जाती है। साथ ही यह भावना भी घर करने लगती है कि उनका कोई भविष्य नहीं है। तब इससे मुक्ति के उपाय का एक सबसे आसान तरीका उन्हें आत्महत्या कर लेना ही लगता है। फिर भी एक सवाल यहाँ अनुत्तरित रह जाता है कि आखिरकार एक आईआईटी के छात्र के लिए आत्महत्या करने की नौबत क्यों आई जिसका शानदार भविष्य बेसब्री से इंतजार कर रहा था ? एक आईआईटी छात्र का कॅरियर ऐसा ही तो होती है। लेकिन लगता है, इतनी ही काफी नहीं था। क्योंकि आईआईटी एक महान् संस्थान है और इसमें पढ़नेवालों पर अच्छे नतीजे लाने का उतना ही बड़ा दबाव भी होता है। यही इसका काला पक्ष है। इसी तरह का दबाव एमबीए कर रहे छात्रों पर भी होता है और इनके द्वारा भी आत्महत्या करने की घटनाएँ हो चुकी हैं। शिक्षा-प्रणाली में अतिआवश्यक सुधार किए जाने के विषय पर सुझाव देनेवाला मैं स्वयं को सही व्यक्ति नहीं समझता, लेकिन यह जरूर समझता हूँ कि कम-से-कम इसकी वजह से छात्रों में पैदा हो रहे तनाव और विषादजन्य आत्महत्याओं को रोकने के लिए लोगों में जागरुकता लाने में मदद कर सकूँ।

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